Tuesday, January 11, 2011

कैसे बताऊँ कि कितना दर्द है..

रोकर मैं अपने ही आँसूं पी लेता हूँ,
या सूख जाते हैं सिगरेट के धुएं से!
कुछ राख उड़कर चिपक जाती है चेहरे पे,
पर क्या फर्क पड़ता है, सब ठीक ही तो है!

कभी उड़ता था मैं भी आसमान में,
और अकेला न था, थे साथ किसी और के सपने भी,
उनसे ही तो उड़ान थी, उनसे ही थी कसक,
पर क्या फर्क पड़ता है, सब ठीक ही तो है!

कभी दीवारें मेरे घर की भी सजी सी रहती थीं,
अंगीठी की आग, शरीर में गर्मी का कारण न थी !
कभी मैं भी हँसता था तो कोई और खुश होता था,
पर क्या फर्क पड़ता है, सब ठीक ही तो है!

कभी मेरा भी कोई ख्याल रखता था, दिन और रात के पहरों में,
कभी मैं भी नशे में रहता था, साकी के आगोश में,
कभी मेरा भी नाम ज़िन्दगी था, और थी मेरी भी कोई ज़िन्दगी,
पर क्या फर्क पड़ता है, सब ठीक ही तो है!

आज अकेला इस बिस्तर पर, ठण्ड की इक कराह,
अपने कानों को ही बींधता हूँ!
मालूम है, कोई नहीं, फिर भी निगाह साथ नहीं देती,
ढूंढती है न जाने किसे, कोई नहीं, दर्द है,
पर क्या फर्क पड़ता है, सब ठीक ही तो है!!!

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